नेशनल स्टेडियम नई दिल्ली में मेजर ध्यानचंद की नयनाभिराम मूर्ति के साथ दो बच्चो की बेहद ही खूबसूरत और संदेश देने वाली तस्वीर सामने आई है

बच्चो ने जिस प्रकार मेजर ध्यानचंद का हाथ थामा है देखकर लगता है किस प्रकार मेजर ध्यानचंद ने अपनी मेहनत से खड़ी की उस विरासत को आगे आने वाली को सौंपा होगा यह तस्वीर वह कहानी बयां कर रही है। 1928, 1932 एवं 1936के लगातार तीन ओलंपिक स्वर्ण पदकों की हैट्रिक लगाने के बाद दितीय विश्व युद्ध के कारण 1940और1944में ओलंपिक का आयोजन नही हो सका यदि ये दोनो ओलंपिक नियमित रूप से आयोजित होते तो निश्चित ही भारत के पास स्वतंत्रता के पूर्व ओलंपिक के पांच स्वर्ण पदक जिनकी कहानी मेजर ध्यानचंद की स्टिक से निकले गोलों से लिखी होती लेकिन परस्थितियों ने यह संभव नहीं होने दिया और फिर 1948में लंदन में ओलंपिक खेलों का आयोजन हुआ इससे पूर्व मेजर ध्यानचंद ने इंटरनेशनल हांकी से कलकत्ता में एक प्रदर्शन मैच खेलते हुए अपने सन्यास की घोषणा कर दी और संन्यास की घोषणा करते हुए कहा की अब भारत की युवा पीढ़ी हांकी की स्वर्णिम विरासत को संभालने में समर्थ है और मेरी जिम्मेदारी इस युवा पीढ़ी को हांकी सिखाने और उसे आगे ले जाने की है जो बात नेशनल स्टेडियम में लगी मेजर ध्यानचंद की मूर्ति उन भारत के भविष्य दोनो बच्चो से कह रहे हो कितना बड़ा संदेश इस तस्वीर में छुपा हुआ है जो हम साफ साफ पढ़ और समझ सकते है कि हम अपना स्थान छोड़ आने वाली पीढ़ी को जिम्मेदारी देते हुए उनका मार्गदर्शन करके मार्गदर्शक की भूमिका निभाना कैसे प्रारंभ कर सकते है । भारत में दो ही ऐसे उद्धरण देखने में आते है की जब एक पीढ़ी ने दूसरी पीढ़ी को किस सरलता से अपनी विरासत को सौंपते हुए उसे आगे बढ़ाने का काम किया है । एक महात्मा गांधी जी ने अनुपम उद्धरण देते हुए संदेश दिया की जब देश आजाद हुआ तो सत्ता की बागडोर उन्होंने अपने साथ कंधे से कंधा मिलाकर काम करने वाली नौजवान पीढ़ी को यह कहते हुए सौप दी की इनमे देश संभालने की वह सब काबलियत है जो देश चलाने के लिए आवश्यक है और फिर दूसरा उद्धरण मेजर ध्यानचंद ने प्रस्तुत किया जब अपने सन्यास के साथ अपनी विरासत को युवा पीढ़ी के हाथो में सौप दिया।संयोग देखिए दोनो ही घटनाएं सन1947 1948की है गांधी जी चाहते तो को उन्हें देश का प्रधानमंत्री बनने से कौन रोक सकता था और मेजर ध्यानचंद को लंदन ओलंपिक में भारतीय हांकी टीम से खेलने से कौन मना कर सकता था ? किंतु दोनो ही के लिए अपने मान सम्मान और प्रतिष्ठा से बढ़कर देश को आगे बढ़ाने की बात रही और उनके इन निर्णयों से देश को नई दिशा मिली और देश ने नए नित्य आयाम स्थापित किए आज की पीढ़ी को इस संदेश को समझने की आवश्यकता है की किस प्रकार वह अपनी विरासत को आने वाली पीढ़ी को सौप सकती है और उनका मार्गदर्शन कर सकती है ।वे पदो ,सत्ता ,के लोभ लालच में कभी नहीं पड़े और इसलिए वे अपने त्याग तपस्या से मोहनदास करमचंद गांधी से महात्मा गांधी हो गए वही अपने कौशल से अपनी मेहनत से गेंद को हांकी स्टिक से चिपकाए हांकी की मेजर ध्यानचंद जादूगर होने की संज्ञा पा गए और खेल मैदान में अपने खेल की रोशनी बिखरते ध्यान सिंह से ध्यानचंद बन गए ।और आने वाले समय में जिस किसी को भी कोई सफलता और सम्मान हासिल होता है तो ऐसा महसूस होता है की गांधी जी और ध्यानचंद जी को ही यह सम्मान मिल रहा है क्योंकि वे ही तो है जिनकी उंगली पकड़कर इस देश ने चलना और हांकी खेलना सीखा है।

हेमंत चंद्र दुबे – बैतूल